वेदव्यास संस्कृत की पुनःसंरचना योजना के अधीन, संस्कृत, हिन्दी विभाग एवम् स० ध० म० वि० शो० एवम् प्र० केन्द्र द्वारा “sanskritist’s & social scientist’s understanding of socio-political-economic agenda setting process & policy implementation in democracy लोकतन्त्र में सामाजिक – राजनैतिक-आर्थिक कार्यसूची- स्थापना प्रक्रिया एवम् नीति-क्रियान्वयन् के विषय में संस्कृतज्ञों और समाज-विज्ञानियों का बोध (संस्कृत-शास्त्रों / कथाओं के सन्दर्भ में)” विषय पर परिचर्चा आयोजित की गई जिसकी अध्यक्षता श्री अनिल मित्तल जी ने की और डा० विजय शर्मा, डा० रमेश मेहरा, डा० आर० के गुप्ता (पञ्चकूला से वीडियो कान्फ्रेन्सिंग द्वारा) , श्री नवनीत, श्री प्रिंस, सुश्री अंकिता, प्रो० मीनाक्षि आदि ने प्रतिभागिता की। कार्यक्रम के आरम्भ में पावर पाईंट के माध्यम से विषय की आवश्यकता पर चर्चा करते हुए स्पष्ट किया गया कि लोकतन्त्र में पार्टियों की आवश्यकता क्यों है? पार्टियां लोगों को अधिक से अधिक विभाजित करती हैं और लोकतन्त्र को केवल पार्टी-तन्त्र में परिवर्तित कर रही हैं और इस प्रकार लोकतन्त्र में लोक की प्रतिभागिता मात्र वोट डालने तक सीमित हो गई है। पार्टियों द्वारा अपनी कार्यसूची सत्ता के सन्दर्भ में स्थापित इस प्रकार की जाती है जिससे लोगों के एषणाओं को और अधिक उभारा जाता है और वैचारिक द्वन्द्व की अग्रसर करते हुए अपने को सत्ता में बनाए रखने का प्रयोजन सिद्ध होता है। संविधान की मर्यादा लोक –कल्याण या लोक-मंगल के लिए नहीं प्रयुक्त होती अन्यथा जो संविधान में मूल-अधिकारों और राज्यनीति निर्देशकों के रूप में लिख दिया गया है उसससे अधिक या उससे कम किसी अन्य कार्यसूची की आवश्यकता नहीं है। संस्कृत नीति-शास्त्र में लोक-संग्रह ही कार्यसूची का मुख्य आधार है और राजधर्म द्वारा उस लोकसंग्रह को स्थापित करना लक्ष्य है। कार्यसूची मूल्यांकन की पद्धतियां दशकुमार-चरित, पञ्चतन्त्र, हितोपदेश आदि में स्पष्टतया देखने को मिलती हैं। संविधान के सन्दर्भ में लोकतन्त्र को पार्टियों को, उनकी कार्यसूचियों को पुनःपरिभाषित करने की सघन आवश्यकता सभी प्रतिभागियों ने अनुभव की। यदि उचित लगे तो संक्षिप्त पीपीटी भी देख सकते हैं।
सादर
आशुतोष आंगिरस